ऋग्वेद के बाद के वैदिक निर्माण व विकास में कई शताब्दियाँ लगीं । इस काल में आर्य लोग सिन्धु से फैलकर दक्षिण पूर्व की ओर फैल गये । आर्य अफगानिस्तान से लेकर गंगा की ऊपरी घाटी तक फैल गये थे । उन्होंने अपने छोटे - छोटे राज्य स्थापित कर लिये । धीरे - धीरे उन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया । मध्यप्रदेश से आर्यों की संस्कृति पूर्व बंगाल और बिहार में बढ़ी और समस्त उत्तरी भारत में फैल गई ।
1. आर्यों का राजनीतिक जीवन - उत्तर वैदिककाल में राजनीतिक जीवन में विशेष परिवर्तन हुआ । इसको हम राज्य , राजा , राजनीतिक , जीवन में देखते हैं । नवीन राज्यों का उदय हुआ , जैसे - गाँधार , कौशल , पाँचाल और काशी । शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ । इस युग में बड़े - बड़े राज्यों की स्थापना का सूत्रपात हुआ । शक्ति प्रदर्शन व विशाल राज्य की कामना से राजा लोग राजसूय तथा अश्वमेध जैसे यज्ञ करने लगे थे । उस समय हस्तिनापुर में कुरुवंशी राजाओं का राज्य अत्यन्त प्रसिद्ध था । राजा जनक वहाँ के प्रसिद्ध राजा थे ।
राजा - इस युग में राजा द्वारा युद्ध का नेतृत्व करने का प्रचलन था । राजा के अब कोई दैवी अधिकार नहीं माने जाते थे । अभिषेक के समय उसे यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि वह धर्म , सत्य और नियम का पालन करेगा । वह कहता था यदि मैं कभी अपनी प्रतिज्ञा भंग करूँ तो मेरे धार्मिक अनुष्ठान , दान , सत्कर्म , जीवन तथा संतान तक का सत्य जाता रहे । अभिषेक के समय उसे इस प्रकार संबोधित कर कहा जाता था , ' कृषि उन्नति तथा सामान्य प्रजा की उननति के लिये यह राज्य तुम्हें सौंपा जाता है । '
राज्य के कर्मचारी - इस समय में राज्य कर्मचारियों को रविन कहा जाता था । राज्य कर्मचारी , पुरोहित , राजन्य , सेनानी , ग्रामीण , क्षत्री , संग्रहित , भाग्दद्य तथा अक्षपद्य इत्यादि होते थे ।
सभा एवं समिति - राजा की स्वेच्छाचारिता एवं निरंकुशता पर प्रतिबंध लगाने वाली संस्थाएँ ' सभाएँ ' एवं ' समिति ' थीं । उत्तर - वैदिककाल में राज्य की सीमाएँ विस्तृत हो जाने के कारण इन संस्थाओं का प्रभाव ऋग्वेदकाल की तुलना में घट गया था , परन्तु फिर भी सभा एवं समिति जब - तब राजा को उसकी सीमाएँ स्पष्ट कर देती थी ।
न्याय व्यवस्था - इन राज्य कर्मचारियों के सहयोग से राजा राज्य की शासन व्यवस्थ अत्यन्त सुचारु रूप से चलाता था । राजद्रोह के लिये प्राणदण्ड दिया जाता था । मुकदमों का निर्णय राजा स्वयं सभा की सहायता से करता था । साधारण मामलों में मुकदमें प्रायः पंचों द्वारा तय किये जाते थे । गाँवों में ग्राम पंचायतें थीं , जो न्याय के छोटे - छोटे कार्य करती थीं ।
2. सामाजिक जीवन - सामाजिक व्यवस्था - वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति - इस काल में वर्णों की रचना प्रारंभ हुई । आर्य समाज चार भागों में विभाजित हो गया था । धार्मिक तथा शिक्षा सम्बन्धी कार्य करने वाला वर्ण ' ब्राह्मण ' कहलाया । युद्ध में भाग लेने वाले सामंतगण क्षत्रिय कहलाए । ये लोग युद्ध प्रेमी थे और अनेक युद्धों में रत् रहते थे । ब्राह्मण , क्षत्रिय आदि वर्णों में वैश्य वर्ण तीसरी श्रेणी में गिना जाता था । इस वर्ण में कृषक , पशुपालक , वणिक , शिल्पकार आदि मध्यम श्रेणी के लोग रहते थे । ये तीन वर्गों के लोग ही विद्या पढ़ने के अधिकारी थे । सामाजिक सेवा , दस्तकारी तथा छोटे - छोटे कार्य करने वाले मनुष्य शूद्र कहलाए । इनमें म्लेच्छ जाति के कालभिल्ल , बधिक , चर्मकार आदि भी सम्मिलित थे ।
आश्रम व्यवस्था -- आर्यों के सामाजिक जीवन में आश्रम प्रणाली का महत्वपूर्ण स्थान था । ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ एवं संन्यास ये चार आश्रम थे । ब्रह्मचर्य अवस्था प्रत्येक मनुष्य को ब्रह्मचर्याश्रम में रहकर ऋषियों द्वारा प्रदान किये गये ज्ञान का अर्जन एवं बुद्धि प्राप्त करना आवश्यक था । गृहस्थाश्रम में गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संतानोत्पनि करना और पितरों के वंश तन्तु का उच्छेद न होने देना , प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य माना जाता था । वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों में रहकर ब्राह्मणों को ब्रह्मचारियों और अन्तेवासियों की आध्यात्मिक ज्ञान का पुण्य संदेश एवं ज्ञानोपदेश देकर जीवन व्यतीत करना पड़ता था । इस प्रकार चारों प्रकार के आश्रमों में अपने प्रकार के कठोर नियम बने हुये थे ।
समाज का स्वरूप - इस समय वर्ण - भेद का आधार मनुष्य का कर्म माना जाता था । इस समय इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न न हो पाई थी कि ब्राह्मण और क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न हुए बिना कोई व्यक्ति इन वर्गों में जान सके । उदाहरणार्थ विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि पद तथा देवापि ने ब्राह्मण पद प्राप्त कर लिया था । इस समय सीमित रूप में अन्तर्जातीय विवाह प्रक्ष प्रचलित थी । विद्या उपार्जन केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित नहीं था । जनक तथा अजातशत्र जैसे अनेक क्षत्रिय राजा विद्याभ्यास करने लगे थे और वाद - विवादों में भाग लेते थे । साधारणतः शूद्र वर्ग , आर्य शिव से पृथक् माना जाता था , परन्तु विद्वान होने पर उसे समाज में आदर का स्थान प्राप्त था ।
3. धार्मिक जीवन - उत्तर वैदिककाल में समाज के साथ - साथ धर्म की दशाओं में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए । पूर्व वैदिककालीन अनेक महत्वपूर्ण देवी - देवताओं की महत्ता इस युग में मौण हो चुकी थी और उसमें से कुछ को सबसे अधिक महत्वशाली स्थान प्राप्त हो गया । उत्तर वैदिककाल में ' शिव ' ( रूद्र ) और विष्णु की पूजा - उपासना को ही सर्वोपरि महत्ता दी जाती थी । अब वर्ण - व्यवस्था के फलस्वरूप धार्मिक कृत्यों का भार उनमें दक्षता प्राप्त जाति - विशेष ब्राह्मणों पर ही आ पड़ा और उन्होंने धार्मिक क्रिया विधियों में भी कालक्रमानुसार बड़े - बड़े परिवर्तन किए । प्रतिदिन पूजा और हवन आदि तथा परंपरागत संस्कारों के निमित्त ब्राह्मणों का आमंत्रण अनिवार्य हो गया । विशिष्ट उत्सवों पर तो उनके बिना कोई कार्य भी न चल सकता था । अब यज्ञों की महत्ता सबसे अधिक बढ़ गई थी और उसमें ' बलि ' को प्रधानता दी जाने लगी थी । ब्राह्मणों की पूजा किये बिना यज्ञों की सफलता और देवताओं का आशीर्वाद उपलब्ध करना दूभर समझा जाने लगा । अस्तु धर्म अथवा धार्मिक कृत्य उच्च वर्गों तक ही सीमित रह गये और शूद्रों को उकनी ओर से अरुचि उत्पन्न होने लगी ।
4. आर्थिक जीवन - उत्तर वैदिककालीन लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था । इस युग में कृषि में अत्यन्त उन्नति हुई थी । खेती के तरीकों , बीज , फसल आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण विकास हुआ था । गेहूँ , चावल , जौ आदि इस युग की प्रमुख फसलें थीं । अच्छी फसल उगाने के लिये खाद का भी प्रयोग किया जाता था । पशुपालन भी अर्थव्यवस्था का प्रमुख साधन था । उत्तर वैदिककालीन आर्यों को धातुओं का व्यापक रूप से ज्ञान था , जिससे उनका आर्थिक जीवन अत्यन्त समृद्ध हो गया था । इस युग में लोगों को सोने व अयस ( लोहा ) के अतिरिक्त चाँदी , ताँबा , सीसा , टिन आदि धातुओं की जानकारी थी । इन धातुओं से आभूषण , हथियार तथा अन्य औजार बनाते थे । इस युग में व्यापार उन्नति पर था । व्यापार आन्तरिक व वैदेशिक दोनों ही प्रकार से होता था । साधारणतया व्यापार विनिमय प्रणाली के द्वारा ही होता था । गाय भी विनिमय का माध्यम थी
प्राचीन भारत में व्यावसायिक श्रेणियाँ
पूर्व एवं उत्तर वैदिककाल में आयों का आर्थिक जीवन समुन्नत था । स्वदेशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापार का ऋग्वेद में वर्णन प्राप्त होता है । विदेशी व्यापार के लिए व्यवसायिक श्रेणियाँ गठित होती थी । व्यापारी समूह स्थल एवं समुद्री मार्ग से बड़ी नालों , जहाजों द्वारा विदेश जाते आते थे । यह एक आश्चर्य के साथ ही अनुकरणीय तथ्य है कि ईसा पूर्व हमारे यहाँ देशी एवं विदेशी व्यापार हेतु व्यावसायिक श्रेणियाँ सक्रिय थीं । उत्तर वैदिक काल में आर्यों को धातुओं का पर्याप्त ज्ञान था । सोना , चाँदी , ताँबा , लोहा , सीसा आदि से आभूषण , हथियार व औजार बनाये जाते थे । नाव निर्माण- सौ पतवारों वाली नाव के निर्माण का उल्लेख बाजसनेयी संहिता में किया गया है । यह जहाज के आकार की नाव सामुद्रिक व्यापार के उपयोग में आती थी । छोटी नावों का भी नदी मार्ग के लिए निर्माण किया जाता था । विनिमय प्रणाली- व्यापारी समृद्ध थे तथा वस्तुओं के आदान - प्रदान के लिए विनिमय प्रणाली का उपयोग करते थे । गाय तथा सोने के टुकड़े ' निष्क ' का भी लेन - देन वस्तुओं के मूल्य के रूप में किया जाता था ।
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