वर्ण व्यवस्था
हिन्दू सामाजिक व्यवस्थाएँ सम्पूर्ण विश्व में अनूठी एवं अद्वितीय है । वर्ण व्यवस्था भी उनमें से एक है । यह भारतीय संस्कृति की विशालता एवं उदारता की प्रतीक हैं । वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत समाज का स्तरीकरण किया गया तथा प्रत्येक स्तर के कुछ कर्तव्य निर्धारित किये गए जिससे समाज में समन्वय स्थापित रहे । वर्ण व्यवस्था से व्यक्ति तथा समाज दोनों लाभान्वित होते हैं तथा उन्हें समान अधिकार प्राप्त होते हैं । वर्ण - व्यवस्था एक क्रियाशील तथा संरचनात्मक समाज की वह व्यवस्था है जिसका आधार धर्म है । हिन्दू दर्शन में धर्म उच्च परम्पराओं तथा प्रतिष्ठा का आधार है । हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में सांसारिक समृद्धि एवं आध्यात्मिकता के समन्वय के परिणामस्वरूप ही वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ । ऋग्वैदिक काल के प्रारम्भिक चरण में आर्यों की मात्र एक श्रेणी थी और उनके प्रतिद्वन्द्वी अनार्य थे , जो आचरण की दृष्टि से अनार्य या दास कहलाते थे । श्रेष्ठ उदात्त और सदाचारी लोग आर्य और शोषक , नृशंस तथा अत्याचारी लोग दस्यु या दास कहलाते थे । इस प्रकार उस काल के प्रारम्भिक चरण में भारतीय समाज में मात्र दो वर्ग थे । प्रारम्भ में वर्ग ( वर्ण ) रंग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ । आर्य गौर वर्ण के थे और अनार्य दास कृष्ण वर्ण के थे । उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद के प्रथम 9 मण्डल से हमें मात्र ब्राह्मण , क्षत्रिय तथा शेष आर्य जनता हेतु विश् का बोध होता है । ' विश् ' का शाब्दिक अर्थ है बैठना । जब आर्य स्थायी रूप से बैठ , यानी एक स्थान विशेष में बस गये तो वहाँ बसी प्रजा विश् कहलायी । बाह्मण व क्षत्रीय के क्षेत्र को छोड़कर शेष कार्य विश ( वैश्य ) का था । 10 व मण्डल से शुद्र वर्ण समाज में दृष्टिगत होता है , जिनका कार्य सेवा था ।
वर्ण विभाजन के प्रमुख आधार तथा सिद्धान्त
आधार- वर्ण व्यवस्था को समाज में प्रारम्भ करने के लिए मानव की स्थायी प्रवृत्तियों , गुणों व स्वभाव को आधार माना गया है । श्रेष्ठ तथा नि : कृष्ट गुणों के आधार पर कार्यों व व्यक्तियों का विभाजन किया गया तथा इसी आधार पर वर्ण व्यवस्था का हिन्दू समाज में प्रादुर्भाव हुआ । वैदिक विज्ञान की दृष्टि से प्रकृति में तीन गुण पाए जाते हैं सत्व , रजस् एवं तमस् । ये तीनों गुण अलग - अलग प्रकृति के परिचायक हैं । जैसे सत्व गुण ज्योति , प्रकाश व ज्ञान का द्योतक है , रजस् - शक्ति तथा ऐश्वर्य का तथा तमस् अन्धकार एवं अज्ञान का परिचायक है । उपरोक्त तीनों गुणों के समन्वय तथा परस्पर मिश्रण से सारी सृष्टि का सृजन हुआ है तथा इन्हीं के मापदण्ड से किसी व्यक्ति की योग्यता व स्वभाव का निर्धारण किया जाता है । प्रवृत्तियों के आधार पर वर्ण व्यवस्था का विभाजन इस प्रकार सम्भव है -
1. ब्राह्मण वर्ण - सात्विक या सत्व गुण की प्रधानता ।
2. क्षत्रिय वर्ण - सात्विक , राजसिक गुण की प्रधानता ।
3. वैश्य वर्ण- राजसिक , तामसिक गुण की प्रधानता ।
4. शूद्र वर्ण- तामसिक गुण की प्रधानता ।
उक्त वर्गों के कार्य / कर्म सुनिश्चित थे । ब्राह्मणों का कार्य यज्ञ करना व कराना , दान देना व लेना , अध्ययन करना व कराना । इसी प्रकार क्षत्रिय के कर्म थे यज्ञ व अध्ययन करना व इनका संरक्षण , दान देना व प्रजापालन । वैश्य के कर्मों में यज्ञ करना , दान देना , अध्ययन , व्यवसाय , कृषि करना आदि तथा शूद्र का कर्म था सेवा करना । वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत केवल कर्म ही निश्चित नहीं थे , बल्कि यह आग्रह भी था कि प्रत्येक वर्ण अपने कर्म को तो पूरा करे लेकिन दूसरों के कर्मों में हस्तक्षेप न करे ।
वर्गों के अधिकार एवं कर्तव्य
( 1 ) ब्राह्मण - यजन - याजन , अध्ययन - अध्यापन एवं धार्मिक अनुष्ठान व अध्यवसाय में संलग्न ब्राह्मण कहलाये , जो स्थान शरीर में मुंह का है वह समाज में ब्रह्माण का था । ब्राह्मण इस व्यवस्था में शीर्षस्थ स्थान पर था । अपने ज्ञान , त्याग व विद्वत्ता से समाज में उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था । ब्राह्मण के लिए चरित्रवान , सत्यवादी , दयालु , क्षमाशील , दूसरों के प्रति सहानुभूति रखना व तेजस्वी होना आवश्यक था । यदि ये गुण उसमें नहीं होते थे तो वह ब्राह्मण कहलाने योग्य नहीं था । किन्तु शनैः - शनैः ये गुण गौण हो गए और जन्मना रूप धारण कर लिया । ब्राह्मण धन संग्रह का अधिकारी नहीं था । वर्णाश्रम धर्म पर विपत्ति आने पर वह शास्त्र भी धारण कर सकता था । मनु ने पुष्यमित्र शुंग द्वारा मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या को उचित बताया है । परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों का नाश किया था । वास्तव में ब्राह्मणों ने शासक के अनुशासक का दायित्व निर्वाह किया । इस वर्ग ने सीधे सत्ता अपने हाथ में न ली । ब्राह्मण करों से मुक्त था । उसका वध जघन्य अपराध समझा जाता था । यह भी विवेच्य है कि ब्राह्मणों को धर्म संगत होना होता था । कुल मिलाकर वे आर्य संस्कृति के वाहक थे ।
( 2 ) क्षत्रिय - ब्राह्मणों के पश्चात क्षत्रियों का स्थान था । शरीर में जो स्थान भुजाओं का है वही समाज में क्षत्रियों का था । क्षत्रिय का कार्य रक्षामूलक था । महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है राजा कौन है ? वह जो प्रजा मात्र को आनन्द दे । क्षत्रिय कौन ? वह जो ब्राह्मण मात्र की क्षति अर्थात हानि , चोट , घाव , आदि से रक्षा करे । वस्तुतः अपने शौर्य से राज्य व देश की रक्षा करना , सत्य व धर्म की सुरक्षा करना उसका परमधर्म था । उसे त्रणहर्ता भी कहा गया है । क्षत्रियों द्वारा अपने धर्म का पालन न करने पर उनक संरक्षक ( ब्राह्मण ) उन्हें यथोचित दण्ड दे सकते थे । सम्भवतः इसी व्यवस्था ने कालान्तर में ब्राह्मण - क्षत्रिय संघर्ष को जन्म दिया था । कालान्तर में क्षत्रिय ब्राह्मणों के प्रभाव से उत्तरोत्तर मुक्त होते चले गए और उन्हें ' गो विप्र रक्षण ' कहा जाने लगा ।
( 3 ) वैश्य - ब्राह्मण व क्षत्रिय के पश्चात समाज में तृतीय स्थान वैश्य का था । जिस प्रकार शरीर में उदर भोजन को पचाकर जो रस रक्तादि बनाने में सहायक होता है उसी प्रकार वैश्य द्वारा उत्पत्र अत्र , गोरस , आदि समाज के अन्य वर्गों के लिए भी होता था । उनका प्रमुख कार्य कृषि करना , पशुपालन , धार्मिक कार्य व व्यापार , आदि था । देश की अर्थिक समृद्धि के लिए उसका महत्वपूर्ण स्थान था ।
( 4 ) शुद्र - समाज में निम्न वर्ण शुद्र का था । उसे शरीर में पैरों की संज्ञा दी गई । वह अधिकार विहीन था । अन्य सभी वर्गों की सेवा करना उसका धर्म था । उसकी अपनी कोई सम्पत्ति नहीं थी । वह सदा ही सर्वोच्च उच्च वर्गों के शोषण का शिकार रहा । उस यज्ञ व वेदाध्ययन का अधिकार नहीं था । प्रश्न उठता है कि आयों ने समाज के इस भाग को इतना हीन क्यों रखा ? उसके प्रति उनका व्यवहार अन्यायपूर्ण था फिर भी उसे अनुचित क्यों नहीं कहा गया ? वास्तव में पूर्व वैदिक काल के साहित्य में तीन वर्षों का ही उल्लेख है । चतुर्थ वर्ण नि : सन्देह पराजित अनार्थ जातियों से बना था । पराजिता के प्रति उनकी धारणा पराजितों के लिए ही रही । वस्तुत : दोहरी नैतिकता समाज में आदि काल से बड़ी मात्रा में प्रताड़ना व शोषण के लिए उत्तरदायी ही रही है । वस्तुतः शूद्रों के प्रति अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए उसे तमोगुण से जोड़ा गया । अपनी बात को रखने के लिए यहाँ तक कह दिया कि ब्राह्मण भी भ्रष्ट होने पर शूद्र हो जाता है ।
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