क्या ऐसा नहीं हो सकता ?

क्या ऐसा नहीं हो सकता ?

मित्र,

मैं जब भी तुम्हारे यहाँ आता हूँ, तुम मेरा एक मेहमान की तरह स्वागत करते हो।

यदि उस दिन तुम्हारे यहाँ शक्कर या घी नहीं होता तो तुम उसे मुझसे छिपाकर लाते हो। यदि उस दिन तुम्हारे बजट में गुंजाइश नहीं होती तो तुम किसी से माँगकर या उधार लेकर सारी व्यवस्था जुटाते हो।

तुम जब मुझसे बात भी करते हो तब भी इस चिन्ता से मुक्त नहीं होते कि नहाने के बाद मुझे टॉवेल देना होगा तेल के बाद कंघा और आईना देना होगा, और मैं जब तक भोजन कर रहा होऊँगा तब तक किसी बच्चे को भेजकर पान मँगाकर रखना होगा।

मैं जब तक स्नान करता हूँ तब तक तुम अपने फटे बिस्तर को, नई चादर से ढक देते हो, धुँधले आईने की जगह पड़ोसी से माँगा हुआ साफ आईना सजा देते हो और खूँटियों पर लटकते बेतरतीब से कपड़ों तथा बिखरी हुई पुस्तकों को करीने से लगा देते हो।

इस सारी व्यवस्था के चलते जब भी दो घड़ी साथ बैठने का अवकाश आता है, तुम बजाय घर-गिरस्ती के, देश-विदेश की, राजनीति और पत्र-पत्रिकाओं के साहित्य की बात छेड़ देते हो।

मैं जब तक तुम्हारे साथ रहता हूँ तुम्हारे चेहरे पर एक क्षण भी निश्चिन्तता खोज नहीं पाता और जब मैं विदा होने लगता हूँ तो तुम कहते हो, "कल चले जाना, कितने दिन के बाद तो आए हो।"

और मैं जब सचमुच रवाना होता हूँ, तो तुम कहते हो, "पत्र देते रहना और जब कभी अवकाश पाओ तो इधर आने की बात भूल मत्र जाना।"

तुम जब मुझे विदा करते हो, तब भी तुम्हारा ध्यान मेरे रवाना होने के बाद किये जाने बाले कामों में लगा रहता है लेकिन मैं जब तक तुम्हारी दृष्टि से ओझल नहीं हो जाता, तुम तव तक मेरी ओर निर्निमेष दृष्टि से निहारते हो, मानो अपनी पलकों पर बिठाकर तुम मुझे विदाई देते हो।

मैं जानता हूँ, तुम्हारी उस दृष्टि में कितना दर्द, कितनी लाचारी, कितना स्नेह समाया हुआ है।

मित्र मेरे,

जिस तरह के साधारण आदमी तुम हो, उसी तरह का साधारण आदमी में भी हूँ।

मेरे आने पर जो-जो तुम्हें करना पड़ता है, तुम्हारे आने पर वही-वही मुझे भी करना पड़ता है।

जिस तरह तुम्हारे यहाँ कभी आटा होता है तो दाल नहीं होती, उसी तरह मेरे यहाँ कभी दाल होती है तो आटा नहीं होता।

तुम्हारे बिस्तरे की चादर जितनी फटी हुई है, मेरे बिस्तरे की चादर भी उससे कम फटी हुई नहीं है। तुम्हारी कुर्सी का दायाँ हत्था टूटा हुआ है और मेरी कुर्सी का बायाँ।

मेरे आने पर तुम जिस धुँधले काँच को छिपाते हो, तुम्हारे आने पर मैं भी उसी धुँधले काँच को छिपाता हूँ लेकिन उस धुँधले काँच में ही हमारी वास्तविक तस्वीर छिपी है। हम सबके चेहरे पर अभावों की धुंध छाई हुई है।

मित्र मेरे,

क्या यह नहीं हो सकता कि हम जैसे हैं, ठीक वैसे ही मिलें और जो हम नहीं हैं, वैसा दिखने का प्रयत्न बन्द कर दें? जैसी सूखी रोटी तुम खाते हो, वैसी ही मुझे खिलाओ। जिस फटे टॉवेल से तुम अपना शरीर पोंछते हो, उसी से मुझे भी अपना शरीर पोंछने दो। चाय पीते समय जिस टूटे हुए कप को तुम मुझसे बदल लेते हो, उसे मेरे ही पास रहने दो।

अपने फटे हुए बिस्तरे को तुम उजली चादर से मत ढँको और कुर्सी के टूटे हुए हत्थों को बीच में आने दो ताकि वे हमारे बीच दीवार न बन सकें और इन सबसे बचे हुए समय में तुम जव भी मेरे पास बैठो, बजाय राजनीति और साहित्य के, अपनी घर-गिरस्ती की, बाल-बच्चों की, सुख दुःख की बातें करो।

विश्वास रखो, सुखःदुख के इस समन्दर में से ही हमारे अभावों की किश्ती के पार होने का मार्ग गया है।

तुम्हारा वही मैं जो तुम हो।

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