ऐतिहासिक शैलचित्र

पाषाणयुगीन शैलाश्रय चित्र 

भारत में पर्वतश्रेणियों तथा पहाड़ियों पर पाषाणयुगीन शैलाश्रय मिलते हैं । चट्टान काटकर अथवा प्राकृतिक पाषाण गुहाओं को पाषाणयुगीन मानव ने अपना आश्रय स्थान बनाकर रखा था । इन आश्रय स्थलों में प्राप्त चित्रों में लय , ताल और गति के साथ शिकारी एवं शिकार का चित्रण पाषाणास्त्रों के साथ किया गया है । भारत में खोजे गए कतिपय शिलाचित्रों में नग्न मानव का चित्रण उपलब्ध है । इस बात का द्योतक है कि पाषाणयुगीन मानव निर्वस्त्र रहता होगा । इन चित्रों को मुख्यत : शिकारी तथा शिकारी दल के पूर्व - पाषाणयुगीन मानव युग्म ( स्त्री एवं पुरुष ) तथा आखेटक मानव समूह द्वारा विभिन्न भाव - भंगिमा में हिंसक एवं अन्य पशुओं का शिकार करना है । शैलचित्रों की खोज . से प्रागैतिहासकालीन संस्कृति पर विशेष प्रकाश पड़ता है । प्रागैतिहासिक शिलाचित्रों का चित्रण मुख्यतः मध्य - पाषाण तथा उत्तर - पाषाणयुगीन मानव एवं मानव समूहों द्वारा किया गया था । 

भारत में प्राप्त पाषाण युग के शिलाचित्र 

भारत की पर्वत शृंखलाओं और पाषाण कंदराओं में चित्रित बहुसंख्यक आखेट दृश्यों एवं आखेट अवस्था से यह सिद्ध हो जाता है कि इनका चित्रण नितान्त आदिम युग ( पूर्व - पाषाण काल ) में ही प्रारम्भ हुआ था । पाषाणकालीन आदिम मानव द्वारा जिन पशुओं का आखेट प्रदर्शित किया गया है । उनमें गैंडा , हाथी , सूअर , चीता , ब्याघ्र तथा साही आदि हैं । ये आखेटक निर्वस्त्र , कभी बिना फल वाले पाषाणास्त्रों के साथ इन पशुओं का शिकार करते चित्रित किए गए हैं । इनमें आखेटकों की गति तथा शिकार की गतिमय अवस्था का भी चित्रण किया गया है । यह पाषाणकालीन मानव के बौद्धिक स्तर एवं कौशल को प्रमाणित करता है । भीमबेटका की गुफाओं से उत्तर - पाषाणकालीन गुफा - चित्र मिले हैं । ये चित्र ऐसी अँधेरी गुफाओं में पाए गए हैं , जहाँ प्रकाश पहुँचना कठिन है । प्रसिद्ध विद्वान डॉ . वि . श्री वाकणकर ने जब भीमबेटका शैलाश्रय की खोज की तब यह तथ्य प्रकाश में आया कि इस काल के मानव तत्कालीन मानव की आवश्यकता की पूर्ति । अपने सीमित साधनों के माध्यम से कर लेता था , वे लोग आग जलाने से लेकर भोजन पकाने तक का कार्य सुलभता से कर लेते थे साथ ही आमोद - प्रमोद हेतु सुन्दर चित्रों का अंकन भी कर लेता था । रायगढ़ क्षेत्र में सिंघनपुर नामक स्थल पर विशालकाय महिष के आखेट का समूहांकन में भालों के प्रयोग से शिकार करते चित्रित किया गया है । इसमें धनुष तथा बर्थी का अभाव इस बात का द्योतक है कि यह कार्य पाषाणयुगीन मानव द्वारा किया गया था । इसके अतिरिक्त पाषाणकालीन शिलाचित्र रायगढ़ , पचमढ़ी , होशंगाबाद , रायसेन , सागर , नरसिंहपुर , ग्वालियर , चम्बल घाटी क्षेत्र ( म . प्र . ) मिर्जापुर , बांदा ( उ . प्र . ) , बस्तर ( छत्तीसगढ़ ) , शाहबाद ( बिहार ) , सुन्दरगढ़ ( उड़ीसा ) , कोप्पल , पिक्कीहल ( आंध्रप्रदेश ) , तथा दक्षिण भारत में कोडाईकनाल , नेलोर आदि क्षेत्रों की गुहाओं में उपलब्ध हुए हैं । 

पाषाणयुगीन शिला चित्रों का सांस्कृतिक महत्व 

आखेट अवस्था को ही मानव विकास की आदिम सांस्कृतिक कला अवस्था स्वीकार किया गया है । पाषाणयुगीन आदिमानव नग्न अवस्था में असभ्य होकर भी आखेट दृश्यों का चित्रण करने में सक्षम था । उसकी श्रेष्ठता पाषाणास्त्रों के निर्माण से सिद्ध होती है । डी . एच . गार्डन महोदय ने तो पाषाणयुगीन सिद्ध होने पर ही शिलाचित्रों को प्रागैतिहासिक कहा है । किन्तु उनकी भ्रांति मध्य - पाषाण एवं उत्तर पाषाणयुगीन शिलाचित्रों की नवीन खोज से दूर की जा सकती है । इन खोजों के विवाद से पाषाणयुगीन शिलाचित्रों की सांस्कृतिक महत्ता कम नहीं हो जाती है । 

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