प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है , क्योंकि आर्यों के आचार - विचार , रहन - सहन , धर्म - कर्म की विस्तृत जानकारी इन्हीं वेदों से प्राप्त होती है । वेदों की रचना के विषय में विद्वानों में मतभेद है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद की रचना सम्भवतः 1500 ई . पू . से 1000 ई.पू. के मध्य की गई होगी । अन्य वेदों व वैदिक साहित्य की रचना ऋग्वेद के पश्चात् की गई । इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का सृजन संभवतः 1500 ई . पू . से 2000 ई.पू. के मध्य किया गया । इसी काल को ' वैदिक युग ' के नाम से जाना जाता है । ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम् है । जिस काल में ऋग्वेद की रचना की गई उसे ऋग्वैदिक काल अथवा पूर्व वैदिककाल कहते हैं । शेष तीनों वेदों के रचनाकाल को उत्तर - वैदिक युग कहा जाता है । आर्यों का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद है । यह ग्रंथ दस मण्डलों तथा 1028 सूक्तों में विभक्त है । ऋग्वेद से आर्यों की तत्कालीन सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं पर व्यापक प्रकाश पड़ता है ।
सामाजिक स्थिति-
( 1 ) पारिवारिक जीवन - आर्यों के समाज की आधारभूत इकाई परिवार थी । ऋग्वेदकालीन परिवार पितृसत्तात्मक था अर्थात् किसी भी परिवार का मुखिया उस परिवार का सर्वाधिक आयु वाला पुरुष होता था । वह पितामह , पिता , चाचा , बड़ा पुत्र में से कोई भी हो सकता था । परिवार के मुखिया का सम्पूर्ण परिवार पर पूर्ण अधिकार होता था तथा अन्य सदस्यों को उसकी आज्ञा का पालन करना आवश्यक था । तत्कालीन समाज में जन व धन की सुरक्षा के लिये सामूहिक परिवार की व्यवस्था परम आवश्यक थी । परिवार में गृह - पत्नी का विशिष्ट महत्व एवं आदर था । गृह - पत्नी पर घरेलू कार्यों का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व होता था । पुत्र न होने पर गोद लेने की प्रथा का भी प्रचलन था । अतिथि का अत्यधिक आदर - सत्कार करने की प्रथा थी ।
( 2 ) मनोरंजन - जीवन के प्रति आर्यों का स्वस्थ एवं आशावादी दृष्टिकोण था । वे जीवन को अधिक - से - अधिक सुखद तरीके से व्यतीत करना चाहते थे । मनोरंजन के प्रमुख साधन संगीत , नृत्य , जुआ , शिकार , रथ - दौड़ तथा द्यूत थे । ऋग्वेदकालीन लोग संगीत के विशेष रूप से प्रेमी थे । गायन एवं वादन दोनों का ही प्रचलन था तथा वे ढोल , मंजीरे , बाँसुरी बीन व वीणा बजाते थे । वे सप्त स्वरों का प्रयोग भी करते थे । ( 3 ) भोजन - ऋग्वेदकालीन व्यक्तियों के भोजन में दूध का विशेष महत्व था । दूध तथा उससे बनने वाली वस्तुओं ( घी , पनीर ) का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता था । अनाज को पीसकर उसमें घी अथवा मक्खन मिलाकर केक की तरह प्रयोग में लाया जाता था । सब्जियों एवं फलों को भी खाया जाता था । भोजन मात्र शाकाहारी ही नहीं मांसाहारी भी होता था । प्रायः भेड़ , बकरी व बैल का गोश्त लोग भूनकर ही खाते थे । गाय को पवित्र मानकर उसका गोश्त नहीं खाया जाता था । ऋग्वेद में गाय को ' अघया ' कहा गया है , जिसका अर्थ ' न मारने वाला ' होता है । गौ - हत्या करने पर कठोर दण्ड दिया जाता था । ऋग्वेदकाल में दूध ही प्रमुख पेय था ।
( 4 ) वेश - भूषा एवं प्रसाधन - ऋग्वैदिक आर्यों की वेशभूषा साधारण थी । आर्य सूती , ऊनी व रंग - बिरंगे कपड़े पहनते थे । मृगछाल का भी प्रयोग किया जाता था । आर्यों को पोषाक में प्रारम्भ में प्रमुख दो वस्र होते थे । ' वास ' जो शरीर के नीचे के भाग पर पहना जाता था , दूसरे शब्दों में एक प्रकार से वास को धोती से तुलना की जा सकती है । दूसरा वस्त्र अधिवास ' होता था जो शरीर के ऊपरी भाग पर पहना जाता था । बाद में एक अन्य नीवी ' का भी प्रयोग होने लगा था । नीवी को ' वास ' के नीचे पहनते थे । विवाह के अवसर पर वधू एक विशेष वक्त धारण करती थी जिसे ' वधूय ' कहते थे । आभूषण स्त्री व पुरुष समान रूप से धारण करते थे।
(5) औषधीयौ का ज्ञान - ऋग्वेद में चिकित्सकों का भी उल्लेख मिलता है , जिन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था । ऋग्वेद में प्रमुख बीमारी का नाम यक्ष्मा बताया गया है । जड़ी - बुटियों का ही प्रमुखतया औषधियों के रूप में प्रयोग किया जाता था । शल्य - चिकित्सा का भी ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है ।
( 6 ) शिक्षा - ऋग्वेद में उपनयन - संस्कार का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता , यद्यपि इस संस्कार का उत्तर वैदिक काल में अत्यधिक महत्व था । विद्यार्थियों को गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के लिये भेजा जाता था । शिक्षा का मुख्य उद्देश्य धार्मिक एवं साहित्यिक शिक्षा प्रदान करना था जिसके द्वारा आर्य - संस्कृति का प्रचार - प्रसार हो सके ।
( 7 ) जाति - प्रथा - ऋग्वैदिक समाज में वर्ण - व्यवस्था का अस्तित्व था अथवा नहीं , इसमें विद्वानों में परस्पर मतभेद है । कुछ विद्वान जिनमें किथ प्रमुख है , ऋग्वेद के दसवे मण्डल के पुरुष सूक्त को आधार मानकर यह प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं कि तत्कालीन समाज में वर्ण - व्यवस्था थी । पुरुष सूक्त में कहा गया है कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख से , क्षत्रिय उसकी भुजाओं से , वैश्य उसकी जाँघों से व शुद्ध पैरों से उत्पन्न हुए है । ऋग्वैदिक काल में जाति प्रथा थी तो निश्चित रूप से पर यह जन्म पर नहीं वरन् कर्म पर आधारित थी ।
( 8 ) विवाह एवं स्त्रीयों की दशा - ऋग्वैदिक युग में बाल - विवाह का प्रचलन नहीं था। तत्कालीन समाज में बहन व भाई , पिता एवं पुत्री तथा माँ व पुत्र का परस्पर विवाह निषेध था। ऋगवेद में एक स्थान पर वर्णित है कि यमी अपने भाई यम से सम्बन्ध स्थापित के लिये कहती है , तो यम निम्न शब्दों में उसे समझाते हैं- " यमी , तुम किसी अन्य पुरुष का आलिंगन करो । जैसे - लता वृक्ष का वेष्टन करती है , उसी प्रकार पुरुष तुम्हें आलिंगन करे । उसी के मन का तुम हरण करो , इसी में मंगल होगा । " ऋगवेदीक समाज में विवाह एक धार्मिक एवं पवित्र कार्य समझा जाता था । ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों का स्थान सम्माननीय था । उस समय पुत्र - प्राप्ति के लिये प्रार्थना की जाती की पित - प्रधान समाज में ऐसा होना स्वाभाविक ही है , क्योंकि पुत्र ही पिता का दाह - संस्कार करता है तथा वहीं परिवार को वंश - परम्परा को जीवित रखता है ।
ऋगवेदीकालीन स्थिति पर ऋग्वेद से व्यापक प्रकाश पड़ता है
( 1 ) कृषि - ऋग्वैदिककालीन अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था । सम्भवतः यह आयों को प्राचीन वृत्ति थी , क्योंकि कर्षण के लिये संस्कृत एवं ईरानी दोनों में समान धातु कृष' है । अतः स्पष्ट है कि दोनों शाखाओं के पृथक् होने से पूर्व ही आर्य यह वृत्ति अपना चुके थे । ऋग्वैदिककालीन कृषि काफी उन्नत स्थिति में थी । फसल मुख्यतया वर्षा पर निर्भर करती थी, यद्यपि कुओं , झीलों , तालाबों व नालियों से भी सिंचाई की जाती थी।
( 2 ) पशुपालन - पशुपालन आर्यों की विशिष्ट वृत्ति थी । कृषि के लिये भी पशुपालन में रुचि आवश्यक थी । ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर पशु - धन की वृद्धि के लिये देवताओं की आराधना की गई है । पशुओं में गाय का विशिष्ट महत्व था तथा उसकी देखभाल की जाती थी । इस बात का ध्यान रखा जाता था कि गाये खो न जाए अथवा रास्ता न भूल जाए । गाय के अतिरिक्त अन्य प्रमुख पशु - घोड़ा , भैंस , ऊँट , बकरी व हाथी थे । कुत्ते का उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है । पशुओं के कानों पर निशान अंकित किया जाता था ताकि उसके स्वामी द्वारा उसकी पहचान की जा सके ।
( 3 ) आखेट - ऋग्वैदिककालीन लोग जीवन - निर्वाह व पशुओं की रक्षा के लिये शिकार भी करते थे । शिकार के लिये धनुष - बाण का ही मुख्यतः प्रयोग किया जाता था । ऋग्वेद में निघापति ( चिड़ीमार ) का भी उल्लेख मिलता है , जो जाल व फन्दों का प्रयोग करता था । सिंह आदि पकड़ने के लिये भूमि में गड्ढे खोदे जाते थे । दासों एवं सेवकों के लिये मछली पकड़ना अथवा शिकार खेलना निषिद्ध था ।
( 4 ) लघु उद्योग - ऋग्वैदिक समाज में अनेक लघु उद्योग उन्नत स्थिति में थे । कला - कौशल एवं दस्तकारी का भी आर्थिक व्यवस्था में प्रमुख योगदान था । बढ़ईगिरी तत्कालीन समाज में एक सम्मानीय दृष्टि से देखी जाती थी , क्योंकि बढ़ई युद्ध एवं दौड़ों के लिये रथ व परिवहन के प्रमुख साधन बैलगाड़ी का निर्माण करता था ।
( 5 ) व्यापार एवं वाणिज्य - ऋग्वैदिक काल में स्वदेशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापार होते थे । व्यापार करने वालों को ' पणि ' कहा जाता था । ' वस्तु - विनिमय की प्रणाली ' प्रचलित थी यद्यपि ' निष्क ' का भी उल्लेख मिलता है । ' निष्क ' के विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं । कुछ इतिहासकारों के अनुसार निष्क सोने के एक आभूषण को कहते थे , किन्तु अन्य निष्क का अर्थ सिक्के अथवा मुद्रा के रूप में लेते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि शब्द ' निष्क ' सिक्के व सोने के एक आभूषण दोनों के लिये प्रयोग होता था । निष्क के अतिरिक्त गाय को भी मूल्य की इकाई माना जाता था । यद्यपि सौदा बाटने में काफी नापतौल होती थी , किन्तु एक बार सौदा तय हो जाने पर उसका निर्वाह किया जाता था । अधिक लाभ के लिये अन्य देशों में व्यापार करने का भी प्रखर में वर्णन है । विदेशों में व्यापार करने के लिये व्यापारी समूह जहाज में जाते थे, जिनमें सो सो चप्पू होते थे । ऋग्वेद में भूज्यू नामक एक व्यक्ति की कथा मिलती है। जिसको आश्विन ने सो चप्पू वाले जहाज से बचाया था।
राजनीतिक स्थिति
1. राजतन्त्र - ऋग्वैदिककाल में राजतन्त्र राज्य का मुख्य स्वरूप था । ऋग्वेद में राजा के लिये ' राजन ' शब्द का उपयोग बराबर हुआ है । सुदास विरुद्ध हुए ऐतिहासिक युद्ध में 10 राजाओं के भाग लेने का उल्लेख है । ऋग्वैदिक काल में जैसा कि लगता है , राजस्व पैतृक हों गया था।
2. कबीली प्रजातंत्र - रामशरण शर्मा ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है ऋग्वैदिक काल में कबीली प्रजातंत्र था । गणतंत्र के लिये तकनीकी शब्द ' गण ' का प्रयोग ऋग्वेद में 46 बार हुआ है । गण नेता को , जिसे एक स्थान पर गणस्य राजा कहा गया है , सामान्यतयः गणपति कहा जाता था । गणपति का चुनाव गण के सदस्यों द्वारा होता था । गण का आर्थिक आधार कृषि और पशुपालन था ।
3. राजत्व - राजा का पद सर्वोपरि होता था । वह भव्य वस्र पहनता था और भव्य प्रासार में निवास करता था । ' राजन ' की उपाधि धारण करता था । राजा का मुख्य कार्य प्रजा की रक्षा करना था । राजा को युद्ध में सेना का संचालन करना होता था । राजा निरंकुश नहीं होत था । पुरोहित या पुरोध उसकी गैर जिम्मेदारी पर रोक लगाते थे ।
4. प्रशासन - प्रजा से ' बलि ' ( कर ) वसूल किया जाता था । पराजितों से भी ' बलि वसूल किया जाता था । राजस्व प्राप्ति के लिये राजाओं ने कुछ एजेन्ट्स नियुक्त किये होंगे
5. सैनिक प्रशासन- इसके सन्दर्भ में ' सेनापति ' और ' पुरपति ' का वर्णन आया है . प्रशासनिक पदाधिकारियों में सेनानी , पुरोहित तथा ग्रामीण के अतिरिक्त सूत , रथकार तथ कार भी होते जिन्हें रली कहा जाता था और जिनका स्थान भी कम महत्वपूर्ण नहीं था ।
6. लोकप्रिय संस्थायें
( 1 ) विदथ - इस संस्था में बुजुर्ग व्यक्तियों को विशेष सम्मान प्राप्त था । इसका कोई नेता अवश्य हुआ करता होगा । विदथ में विद्वानों को ही सम्मिलित किया जाता था । इसमें ओरते भी सदस्य होती थीं ।
( ii ) सभा - ए , हिलब्रन्ट के अनुसार , ' सभा ' और ' समिति ' दोनों एक थीं , परन्तु अथर्ववेद में ' सभा ' और ' समिति ' को स्पष्ट रूप से प्रजापति की दो पुत्रिय कहा गया है । के . पी . जायसवाल , एन.सी. बन्दोपाध्याय , ए . एस . अल्तेकर , यू . एन . घोषाल के अनुसार सभा एक राजनीतिक असेम्बली थी । इसमें अमीर , कुलीन और राजघराने लोगों का विशिष्ट स्थान होता था ।
( ii ) समिति - ए . एस . अल्तेकर के अनुसार गाँव की लोकप्रिय असेम्बली सभा कहलाती थी और राजधानी की केन्द्रीय असेम्बली होती थी जिसे समिति कहा जाता था । शतपथ ब्राह्मण के आधार पर घोषाल ने माना है कि समिति को सार्वजनिक कोष वितरण पर नियंत्रण करने का अधिकार था । 7. युद्ध व्यवस्था - ऋग्वेद काल में राजनीतिक व्यवस्था में युद्ध का महत्वपूर्ण स्थान था सेना तीन प्रकार की होती थी -1 . पैदल , 2. घुड़सवार तथा 3. रथी सेना । अभी युद्ध में हाथी नहीं प्रयुक्त होते थे । इनके अस्त्र - शस्त्रों में धनुष बाण , तलवार , भाला , बर्थी तथा गोफन मुख्य थे । युद्ध प्रायः नदी तट पर लड़े जाते थे ।
8. न्याय व्यवस्था - राजा सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था । ऋग्वेद में बहुत से दंडनीय अपराधों का उल्लेख मिलता है , जिनमें मुख्य हैं - चोरी , डकैती , ऋण न चुकाना आदि । दण्ड के रूप में जुर्माना लेने की प्रथा भी थी । गाँवों में अपराधों के मामलों को निपटाने हेतु पंच मध्यस्थ बनकर फैसला करते थे । अपराधों का पता लगाने के लिये जीवग्रब , उग्र ( पुलिस ) होते थे ।
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